नव बोध
>> मंगलवार, 9 दिसंबर 2008
जैसे कस्तूरी बसे मृग में
और ढूंढे वो उसे वन में
वैसे ही ईश बसे हम सब में
हम भटके वन वन में
मस्ती की कस्तूरी से
जीवन सुगंध पाता है
जब मस्ती मिल जाती है
ईश भी मिल जाता है
मस्ती ख़ुद से मिलना है
मस्ती ईश में रमना है
अंतर दृष्टि खुल जाती है
नव बोध हो जाता है
मस्ती के नयनो को पाकर
आत्म ज्ञान जाता है ।
नव बोध मस्ती सुबोध
मेरे प्रियतम ! मेरे हमजोली !!
आओ नया बोध हम पाए
कोमल सा मन को करके
हम भगवन से मिल जाए
और ढूंढे वो उसे वन में
वैसे ही ईश बसे हम सब में
हम भटके वन वन में
मस्ती की कस्तूरी से
जीवन सुगंध पाता है
जब मस्ती मिल जाती है
ईश भी मिल जाता है
मस्ती ख़ुद से मिलना है
मस्ती ईश में रमना है
अंतर दृष्टि खुल जाती है
नव बोध हो जाता है
मस्ती के नयनो को पाकर
आत्म ज्ञान जाता है ।
नव बोध मस्ती सुबोध
मेरे प्रियतम ! मेरे हमजोली !!
आओ नया बोध हम पाए
कोमल सा मन को करके
हम भगवन से मिल जाए
2 टिप्पणियाँ:
जैसे कस्तूरी बसे मृग में
और ढूंढे वो उसे वन में
वैसे ही ईश बसे हम सब में
हम भटके वन वन में
मस्ती की कस्तूरी से
जीवन सुगंध पाता है
...
बहुत अच्छा ....
जैसे कस्तूरी बसे मृग में
और ढूंढे वो उसे वन में
वैसे ही ईश बसे हम सब में
हम भटके वन वन में
कितना सुंदर लिखा है आपने की हम इंसान कैसे कैसे है की मन मे बसे ईश्वर को इधर उधर खोजते रहते है
जबकि वो तो हम सब के मन मन्दिर मे सदा विराजमान है
अति उतम अमिताभ जी
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